प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. उत्तर भारत के प्राचीन शिक्षा केन्द्र बताइए।
2. दक्षिण भारत के प्राचीन शिक्षा केन्द्र बताइए।
3. तक्षशिला विश्वविद्यालय पर टिप्पणी लिखिए।
4. तक्षशिला विश्वविद्यालय का प्रबन्ध बताइए।
5. तक्षशिला विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम बताइए।
6. नालन्दा विश्वविद्यालय के विषय में आप क्या जानते हैं? विस्तार से लिखिए।
7. प्राचीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र बताइए।
8. नालन्दा विश्वविद्यालय पर निबन्ध लिखिए।
उत्तर-
प्राचीन भारत के उत्तरी भारत तथा दक्षिण भारत दोनों भागों में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे जिसमें देशी तथा विदेशी दोनों प्रकार के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। इनके अतिरिक्त बौद्ध मठ तथा हिन्दू मंदिर भी शिक्षा के केन्द्र थे। इन मठों तथा मंदिरों में चलने वाली पाठशालाओं को राजा तथा धनी वर्ग से काफी मात्रा में धन प्राप्त होता था, जिसके कारण इनके चलाने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। उत्तरी भारत के शिक्षा केन्द्र प्राचीन भारत में उत्तरी भारत के तक्षशिला पाटलिपुत्र, कन्नौज, मिथिला, धारा तथा अहिल्या पाटन जैसे प्रमुख विद्या केन्द्र थे, जिनके द्वारा अच्छे किस्म की उच्च शिक्षा भारतीय तथा विदेशी छात्रों को दी जाती थी।
दक्षिण भारत के शिक्षा केन्द्र - दक्षिण भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र थे- कल्याणी, तन्जौर तथा मालखंड नये शिक्षा केन्द्र थे।
इनके अतिरिक्त कुछ प्राचीन शिक्षा केन्द्र उत्तरी तथा दक्षिण भारत में थे उनमें कांची, बनारस, नासिक, कर्नाटक, गंगा नगर आदि। इन शिक्षा केन्द्रों का दूर-दूर तक अपनी अच्छी शिक्षा प्रणाली के कारण नाम था।
नदिया या नवद्वीप - नदिया का पुराना नाम नवद्वीप है, जो पूर्वी बंगाल में गंगा या जलांगी के संगम पर प्रकृति के सुरम्य अंचल में यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक और शिक्षण केन्द्र रहा है। पालवंशी शासकों ने इसके विकास पर काफी बल दिया था। 11वीं शताब्दी के मध्य नवद्वीप के गौड़ राजा लक्ष्मण सेन ने इसे अपनी राजधानी बनाया और इसके पश्चात् इसकी ख्याति दूर-दूर तक प्रसारित होने लगी। भारतीय साहित्य में गीतगोविन्द के प्रणेता जयदेव इसी नवद्वीप के थे। उमापति की कवितायें और न्यायशारम का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ स्मृतिविवेक भी उल्लेखनीय है। मुसलमानों के आक्रमणों से नालन्दा विश्वविद्यालय का पतन हो चुका था तब नदिया विश्वविद्यालय आगे बढ़ा। कालान्तर में बंगाल के मुस्लिम शासकों ने भी नदिया के सांस्कृतिक और शैक्षिक विकास में किसी प्रकार की बाधायें नहीं आने दीं। वासुदेव सार्वभौम ने नदिया में तर्कशास्त्र का सूत्रपात और कालान्तर में उसके शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने न्याय की एक नवीन विचारधारा का सूत्रपात किया। नवद्वीप में न्यायशास्त्र के अध्ययन की व्यवस्था भी हुई। आगे चलकर मथुरानाथ, रामचंद्र और गदाधर भट्टाचार्य नामक प्रसिद्ध न्यायाचार्य हुए। नदिया विश्वविद्यालय की शिक्षा नवद्वीप, शान्तिपुर व गोपालापाड़ा नामक तीन केन्द्रों में दी जाती थी। यहां छात्रों की संख्या 40,000 और शिक्षक संख्या 600 होने के प्रमाण मिलते थे। सन् 1816 ई० में एक अंग्रेज लेखक ने यहाँ 46 स्कूल 380 विद्यार्थी किन्तु 1818 ई० में 31 स्कूल तथा विद्यार्थियों की संख्या 747 का अनुमान वार्ड ने किया। वार्ड ने 31 स्कूल पाये उनमें 17 में तर्कशास्त्र 11 में कानून तथा शेष 3 में क्रमशः ज्योतिष, काव्य और व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी।
ओदन्तपुरी - ओदन्तपुरी का विश्वविद्यालय मगध राज्य में स्थिर था। इसकी स्थापना मगध में पालवंशीय शासकों का शासन स्थापित करने के पहले ही हो चुकी थी। लेकिन आगे चलकर इन शासकों ने विशाल पुस्तकालय बनवाया था। इस पुस्तकालय में ब्राह्मणीय और बौद्ध साहित्य की बहुमूल्य पुस्तकों का सुन्दर संग्रह था। यहाँ लगभग 1000 भिक्षु तथा विद्यार्थी निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। यहाँ धार्मिक तथा बौद्धिक दोनों प्रकार के विषयों की उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी। बौद्ध धर्म के प्रचार में इस विश्वविद्यालय ने विशेष योगदान दिया था। इतना ही नहीं ओदन्तपुरी के विचार के अनुरूप ही तिब्बत का प्रथम म० इसी सन् 749 ई० में बनवाया गया।
जगद्दला - पालवंशीय राजा रामपाल ने 11वीं शताब्दी में गंगा तट पर एक नयी नगरी बसायी थी तथा वहाँ पर कुछ विहार भी बनवाये थे। यही विहार जगद्दला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ इतिहास लेखकों ने इनको जगद्दली भी कहा है। इस समय का यह विश्वविद्यालय शिक्षा का एक बहुत बड़ा केन्द्र माना जाता है। यह 100 वर्षों तक शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बना रहा। जगद्दला विश्वविद्यालय उच्चकोटि की शिक्षा तथा अपने आदेशों के लिए सुप्रसिद्ध था। अन्य विषयों के साथ-साथ इस विश्वविद्यालय में तर्कशास्त्र और तन्त्र विद्या की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। तिब्बत के अनेक विद्वान विद्यार्थी 'यहां आकर संस्कृत के मूल ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया करते थे। यहां के अनेक विद्वान, उपाध्याय, आचार्य तथा तर्कशास्त्री भी थे। इसमें विभूतचन्द शुंभकर, मोक्षकर आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। सन् 1203 ई० में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे विनष्ट कर दिया था।
मिथिला - मिथिला का पुराना नाम विदेह था। यह स्थान उपनिषद् काल से शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र बना रहा था। महाराजा जनक अपने समय में अनेक धार्मिक विषयों पर चर्चा किया करते थे। कृष्णकाव्य के रचयिता विद्यापति का जन्म यहीं हुआ था। उन्होंने न केवल बंगाल, बिहार, बल्कि समस्त हिन्दी प्रदेश को अपनी मधुर वाणी से मन्त्र-मुग्ध कर दिया था। यहाँ साहित्य की शिक्षा के अलावा वैज्ञानिक शिक्षा पर भी अध्ययन होता था। न्यायशास्त्र के लिए यह विश्वविद्यालय विशेष प्रमुख था। न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान गनेश उपाध्याय ने तत्वचिन्तामणि नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। 12वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक यह शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा है।
कांची - पल्लव राज्य की राजधानी कांची प्राचीनकाल में दक्षिण भारत का सर्वप्रथम सांस्कृतिक केन्द्र तथा शिक्षण केन्द्र रहा है। इसको दक्षिण की काशी कहा जाता है। यहाँ ब्राह्मण धर्म तथा बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी और इन दोनों के पृथक-पृथक केन्द्र थे। तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र और व्याकरण साहित्य की भी शिक्षा यहां प्रदान की जाती थी। आचार्य दिङ्नाग ने यही शिक्षा ग्रहण की थी। पांचवीं शदी में कदम्ब वंश के मयूर वर्मा भी यहां उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए आये थे, तर्कशास्त्र के रचयिता विद्वान कौटिल्य की जन्मस्थली कांची ही थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग 642 ई० में कांची आया था और वह काफी समय तक वहाँ रहा। उसके अनुसार कांची में वैष्णव, शैव, दिगम्बर जैन व महायान बौद्ध करते थे।
काशी - काशी का अर्वाचीन नाम वाराणसी है। बहुत दिनों तक इस नगर को बनारस भी कहा जाता रहा। काशी का राजा अजातशत्रु ने औपनिवेशिक ज्ञान यही प्राप्त किया था। सातवीं शताब्दी ई० पूर्व में काशी उत्तर भारत का महत्वपूर्ण शिक्षा का केन्द्र रहा। यहाँ भी 18 विषयों की शिक्षा दी जाती थी, यहाँ हमेशा हिन्दू संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं सारनाथ में दिया था। सम्राट अशोक के समय सारनाथ बौद्ध शिक्षा का केन्द्र रहा। तक्षशिला की भांति वहां भी वेरागों व अठारह शिल्पों की शिक्षा दी जाती थी। काशी में हिन्दू धर्म तथा सारनाथ में बौद्ध शिक्षा दी जाती थी। विद्वान दार्शनिक आचार्य शंकर भी काशी में आये थे और वेदान्त की शिक्षा प्राप्त की थी। कालान्तर में काशी मुस्लिम साम्राज्य में सम्मिलित हो जाने से शिक्षा की दृष्टि से कमजोर पड़ने लग गया था, परन्तु आज भी भारत का शिक्षा जगत का केन्द्र है।
तक्षशिला विश्वविद्यालय
प्राचीन भारत में यह उच्च शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ हजारों की संख्या में देश-विदेश के विद्यार्थी विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त करते थे। यहां के पढ़े-लिखे बालक आगे चलकर बड़ा नाम कमाते थे। यह विश्वविद्यालय जो तक्षशिला विश्वविद्यालय के नाम से पुकारा जाता था रावलपिण्डी से लगभग 32 किमी० की दूरी पर पश्चिम की ओर स्थित था। यह गांधार प्रदेश की राजधानी भी थी। इस नगर की नींव वाल्मीकि रामायण के अनुसार भरत के हाथों रखी गई थी और उनके पुत्र तक्ष के नाम पर इस नगरी का नाम तक्षशिला रखा गया। नगर प्राचीनकाल से ब्रह्मणीय शिक्षा के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में देखा जाता था। जब पांचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाह्यान ने इस विश्वविद्यालय को देखा था उसे इस विश्वविद्यालय का कोई भी अवशेष दिखाई नहीं पड़ा था। इतिहासकारों का मत है कि यह विश्वविद्यालय ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी तक शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र कहा जाता था। काशी, मिथिला तथा राजगृह के विद्यार्थी यहां शिक्षा प्राप्त करने आया करते थे।
जब भारत पर सिकन्दर महान का आक्रमण हुआ था। उस समय यह विश्वविद्यालय अपनी पूर्ण सजधज के साथ चमक रहा था। जातकों के अध्ययन के पश्चात् यह ज्ञात होता है कि यह विश्वविद्यालय हिन्दू तथा बौद्ध संस्कृतियों का एक प्रमुख केन्द्र के रूप में अपनी धाक जमाये हुए था, जिसमें हजारों की संख्या में विद्यार्थी भारत के हर भाग से आकर यहाँ शिक्षा पाते थे। उनको पढ़ाने के लिए कई सौ अध्यापक, प्राध्यापक थे। इसी विश्वविद्यालय में बनारस के युवराज तथा कौशल के राजा प्रसेनजित ने शिक्षा प्राप्त की थी। अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य ने भी इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई थी।
तक्षशिला विश्वविद्यालय का प्रबन्ध - यहाँ पारिवारिक प्रणाली के आधार पर शिक्षा प्रदान की जाती थी। जहां निर्धन तथा धनी वर्ग के विद्यार्थी बिना किई ऊंच-नीच के शिक्षा एक समान रूप में पाते थे। विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी तथा उनसे भोजन तथा निवास शुल्क लिया जाता था। यहां जो विद्यार्थी दाखिला लेने आता था, उसकी उम्र 16 वर्ष होती थी और विद्यार्थी अपने गुरु की सेवा करते थे और उनके परिवार के सदस्यों के साथ रहा करते थे। अधिक धनी लोगों के बच्चे अलग स्थानों पर भी रहा करते थे। यहाँ एक अध्यापक के पास कभी-कभी तो 500 छात्र तक हो जाते थे। तक्षशिला वास्तव में प्राचीन भारत का सर्वाधिक एक महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र के रूप में देखा जाता था। लगभग 100 वर्ष तक इसकी ख्याति देश-विदेश में एक समान रूप में रही। दूर-दूर के देशों, नगरों के विद्यार्थी यहां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे और पूर्ण शिक्षा पाने के बाद ही वे अपने घरों को जाते थे।
तक्षशिला विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम - तक्षशिला शिक्षा का एक महान केन्द्र था। यहाँ उच्च स्तरीय विषयों का अध्ययन कराया जाता था, जैसे वेदान्त वेदचर्या, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, तर्कशास्त्र, सर्पदंश, चिकित्सा, युद्धविद्या, दर्शन तथा कूटनीति तथा नृत्य और अनेक प्रकार के शिल्पों की भी शिक्षा दी जाती थी। शुल्क देने वाले छात्रों तथा शारीरिक श्रम करने वाले निर्धन छात्रों को बिना किसी भेदभाव के एक समान रूप में शिक्षा दी जाती थी। उनको भोजन, वस्त्र, रहन-सहन भी एक समान रहता था हर वर्ण के छात्र को एक समान सुविधा प्राप्त थी। प्रसिद्ध व्याकरण के विद्वान पाणिन, चाणक्य, जीवन सम्राट चन्द्रगुप्त तथा पुष्यमित्र इसी विश्वविद्यालय के छात्र थे।
पतन - जिस प्रकार तक्षशिला विश्वविद्यालय ने उन्नति की उसी प्रकार उसका पतन भी हुआ। पांचवीं शताब्दी में जब चीनी यात्रा फाह्यान भारत आया था तब उसके समय में इस विश्वविद्यालय का नामो-निशान मिट चुका था। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने इस शिक्षा केन्द्र को देखकर अधिक दुःख प्रकट किया। उसके पिटने के साथ इसका नाम केवल इतिहास की पुस्तकों में ही लिखा हुआ दिखाई पड़ता है मिट गया तेरा नाम फिर भी तेरा नाम पुस्तकों में अभी तक बाकी है।
नालन्दा विश्वविद्यालय
यह विश्वविद्यालय उत्तरी भारत के बिहार राज्य में था जो पटना से 63 किमी. की दूरी पर दक्षिण की तरफ स्थित था। सन् 450 ई. में इस शिक्षा केन्द्र की स्थापना हुई। इसकी स्थापना के संबंध में ऐसा कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध के प्रथम शिष्य सरिपुत्र का जन्म स्थान यहीं था। सम्राट अशोक जब सारिपुत्र का चैत्य देखने के लिए आये जब उन्होंने यहाँ एक विशाल बिहार का निर्माण कराया। इस विश्वविद्यालय की नींव सम्राट अशोक के हाथों रखी गई। समय के साथ शिक्षा के क्षेत्र में इस विश्वविद्यालय का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया। सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया तब उसने नालन्दा विश्वविद्यालय को एक विशाल रूप में देखा। वह यहां की शिक्षा प्रणाली से प्रभावित हुआ और बड़े सुन्दर शब्दों में इस विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था उल्लेख अपने यात्रा वर्णन में किया है। उसकी यात्रा वर्णन से ज्ञात होता है कि उसके समय में यह विश्वविद्यालय अपनी उन्नति के शिखर पर था। गुप्त साम्राज्य के समय इस विश्वविद्यालय की बड़ी तेजी के साथ उन्नति हुई क्योंकि गुप्तवंश के सम्राटों ने दिल खोलकर इस विश्वविद्यालय को दान दिये।
नालन्दा विश्वविद्यालय के भवन - पुरातात्विक उत्खनन से ज्ञात होता है कि यह विश्वविद्यालय एक मील लम्बा और आधे मील चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। इसका क्षेत्र एक विशाल तथा शक्तिशाली चार दीवारी से घिरा हुआ था, जिसमें एक बाहरी प्रवेश द्वार भी था यह भवन कई मंजिलों का था और उसमें 300 व्याख्यान कक्ष भी थे। इसके अतिरिक्त मठों तथा स्तूपों की संख्या अधिक रूप में थी। इसके सभा भवन के चारों तरफ शिक्षकों तथा छात्रों के रहने के लिए चार मंजिला भवन भी बने हुए थे। इन भवनों का निर्माण एक निश्चित योजना के आधार पर नक्शों की सहायता से किया गया था। नालन्दा विश्वविद्यालय में ही एक विशाल पुस्तकालय का भवन भी था, जो 100 गज ऊंचा 9 मंजिला था। इस भवन में सभी विषयो की पुस्तकें थीं। इन भवनों के साथ-साथ मैदान भी उनके चारों तरफ थे और बारह सरोवर भी थे। साथ ही साथ जल समस्या का निदान करने के लिए विशाल कूप भी बने हुए थे।
नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश की विधि - इस विश्वविद्यालय में छात्रों का दाखिला बड़ी कठिनाई के साथ होता था। विश्वविद्यालय के द्वार पर द्वारपंडित के द्वारा प्रवेश लेने वाले छात्र की परीक्षा ली जाती थी। इस परीक्षा में जो भी सफल होता था उसको ही प्रवेश दिया जाता था। इस विश्वविद्यालय का शिक्षा स्तर बहुत अधिक ऊंचा था। इस कारण यहां देश-विदेश से आये हुए छात्रों की भीड़ लगी रहती थी। चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, बर्मा, जावा, सुमात्रा तथा तुर्किस्तान आदि देशों के विद्यार्थी यहां शिक्षा प्राप्त करने आते रहते थे।
नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रबन्ध की रूपरेखा - नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रबन्ध बहुत ही उच्चकोटि का था। इसमें 10 हजार छात्र और 1500 अध्यापक अध्ययन एवं अध्यापन करते थे। इस विश्वविद्यालय में कई विभाग थे, जिनका प्रबन्ध जनतंत्रीय प्रणाली पर आधारित था जो विश्वविद्यालय का कुलपति कहा जाता था। कुलपति का निर्वाचन बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा होता था और इस पद के लिए सर्वश्रेष्ठ विद्वान को चुना जाता था। कुलपति की सहायता के लिए परामर्श देने के लिए दो समितियाँ भी होती थीं जिनमें से एक शैक्षणिक तथा दूसरी प्रशासकीय कही जाती थी। शैक्षणिक समिति का कार्य प्रवेश पाठ्यक्रम निर्धारण तथा अध्यापकों का कार्य वितरण करना था। विक्रमशीला में जब डिप्लोमा कार्य लागू किया गया। इस समिति को परीक्षायें भी लेने का भी कार्य सौंपा गया। पुस्तकालय को व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी भी इसी समिति के हाथों में दी गई। प्रशासकीय समिति छात्रावासों की व्यवस्था, नये भवनों का निर्माण, पुराने भवनों की मरम्मत, भोजन, वस्त्र तथा चिकित्सा के कार्यों की देख-रेख करती थी।
नवीं शताब्दी तक यह विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका था। जावा तथा सुमात्रा के राजा बलपुत्र देव ने इसकी प्रसिद्धि से आकर्षित होकर यहाँ एक मठ का निर्माण करवाया था। बंगाल के देवपाल ने विश्वविद्यालयों में पुस्तक लेखन के लिए इसका एक भाग सुरक्षित करवा दिया था।
खर्चों की पूर्ति की जिम्मेदारी - इस विश्वविद्यालय का सब खर्चा देश के राजाओं तथा प्रजा से दान के रूप में दी जाने वाली जागीर से पूरा होता था। राजा तथा प्रजा इस विश्वविद्यालय की भूमि जागीर के रूप में तथा धन दान के रूप में जो रकम देते थे उसी से इस विश्वविद्यालय का खर्च पूरा होता था। इस विश्वविद्यालय के आस 2 हजार गांव थे जिनकी आमदनी से इस विश्वविद्यालय का खर्चा चला करता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय के छात्रवास - इस विश्वविद्यालय के छात्रावास की व्यवस्था बहुत ही अच्छी थी। छात्रों के रहने के लिए दो मंजिलों में 13 विहारों में काफी संख्या में कमरे बने हुए थे। छोटे कमरों में एक, बड़े कमरों में दो छात्रों को रखा जाता था। छात्रावास में भोजन पकाने की व्यवस्था, विहार की तरफ से निर्धारित कर्मचारी करते थे। छात्रावास के अपने नियम भी थे, जिनका पालन प्रत्येक छात्रावास में रहने वाले विद्यार्थी को करना पड़ता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम - इस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का विस्तार के साथ चीनी यात्री आइत्सिग ने उल्लेख अपनी यात्रा विवरण में किया है। यहाँ विद्यार्थियों को महायान तथा हीनयान दोनों बौद्ध धर्म की शाखाओं के अतिरिक्त वैदिक धर्म की भी शिक्षा दी जाती थी। साथ ही साथ अनेक धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन होता था। इसके अलावा वेद, पुराण, दर्शन, ज्योतिष आयुर्वेद एवं वास्तुकला की भी शिक्षा दी जाती थी।
8 वीं शताब्दी के पश्चात् नालन्दा के बौद्ध विद्वानों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया जिसके कारण इस विश्वविद्यालय में तिब्बती भाषा भी पढ़ाई जाने लगी। यह विश्वविद्यालय लगभग 8 सौ वर्षों तक अपने ज्ञान के प्रकाश से संसार को आलोकित करता रहा तथा यहाँ से पढ़े-लिखे विद्यार्थियों ने . अपने-अपने देशों में शिक्षा का प्रचार किया। 11वीं शताब्दी के अन्त में इस विश्वविद्यालय का अन्त हो गया। आज भी इसके अवशेष इसकी याद दिला रहे हैं।
बनारस - बनारस का प्राचीन नाम वाराणसी था। छठी शती ई०पू० में यह बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र के रूप में देखा जाता था। यहाँ अनेक विद्वान, मनीषी तथा महापुरुष रहा करते थे। 11वीं शताब्दी में यह शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा, परन्तु 12वीं शताब्दी में इसका पतन हुआ। यहां के विद्वान अधिक संख्या में दक्षिण की ओर चले गये परन्तु जब दक्षिण में बहमनी राज्य स्थापित हो गया तब विद्वान फिर बनारस आ गये और फिर बनारस की गणना शिक्षा के एक महान केन्द्र के रूप में होने लगी।
विक्रमशिला
इस विश्वविद्यालय की स्थापना 8वीं शताब्दी में राजा धर्मपाल के हाथों हुई। 12वीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय में लगभग तीन हजार भिक्षु अध्ययन करते थे। यहां एक विशाल पुस्तकालय भी था जिसमें अनेक विषयों की पुस्तकें थीं। इस पुस्तकालय के सात द्वार थे। यहाँ व्याकरण, तर्कशास्त्र तथा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। यहाँ अधिक संख्या में विद्यार्थी पढ़ते थे। सन् 1230 ई० में इसको भी नष्ट कर दिया गया। यह विश्वविद्यालय भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का विश्वविद्यालय था।
वल्लभी - यह विश्वविद्यालय काठियावाड़ में था। यह नगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था जहाँ अनेक देशों के छात्र आते जाते थे। इस विश्वविद्यालय की शोहरत में चार चांद लगाते गये। 7वीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय ने बड़ा नाम कमाया। यहाँ लगभग 100 मठ थे। यहाँ 6 हजार के लगभग विद्यार्थी पढ़ा करते थे। यहां के पढ़े-लिखे लोग उच्च प्रशासनिक पदों पर थे। यहाँ के प्रसिद्ध विद्वानों में स्थिर मत तथा गुणपति के नाम बहुत ही प्रसिद्ध है। यह विश्वविद्यालय भी बहुत ही समय तक शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा। परन्तु इस विश्वविद्यालय का भी पतन हुआ। आज इसके खण्डर भी देखने को नहीं मिलते हैं।
प्राचीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र - इन विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त प्राचीन भारत में निम्नलिखित शिक्षा केन्द्र भी थे जिनमें अधिक संख्या में विद्यार्थी लिखना पढ़ना सीखते थे-
1. कश्मीर विद्या केन्द्र - इतिहासकारों का मत है कि ईसवी सन् के प्रारम्भ से कश्मीर भी विद्या का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। जब बौद्ध धर्म मध्य एशिया में तेजी से फैल रहा था तब यह शिक्षा केन्द्र अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का शिक्षा केन्द्र बन गया था। कुमार जीव ने दो वर्षों तक यहाँ शिक्षा पाई थी। यहाँ ब्राह्मण विद्या के केन्द्र मठ कहे जाते थे तथा बौद्ध शिक्षा केन्द्रों को विहार के नाम से पुकारा जाता था।
2. देवालयों में विद्यापीठ - 11वीं, 12वीं शताब्दी में यहाँ इस प्रकार के विद्यापीठों का पता चलता है जिनमें कई सौ विद्यार्थी पढ़ा करते थे।
3. अग्रहार ग्राम विद्या के केन्द्र - दक्षिण भारत तथा उत्तरी भारत में प्राचीन भारत में इस प्रकार के शिक्षा केन्द्र भी थे। जहां अधिक संख्या में ग्रामीण लोगों के बालक शिक्षा पाते थे।
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- प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।